सवाल उठ रहा-वन विभाग को आशियाना बनने के बाद क्यों नजर आया अतिक्रमण
अंबिकापुर। महामाया पहाड़ श्रीगढ़ क्षेत्र में वन विभाग के द्वारा अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई सोमवार को की गई, इसके बाद यहां के लगभग 40 परिवार सड़क पर आ गए हैं। इन परिवारों के लिए घर केवल ईंट-पत्थरों का ढांचा नहीं था, बल्कि उनकी खुशियों, संघर्षों और सपनों का बसेरा था। मंगलवार को मलबों के बीच लोग अपने सामानों को तलाशते नजर आए। इधर मामले को हाईकोर्ट के संज्ञान में लाने के बाद अर्जेंट हियरिंग के तहत सोमवार को ही सुनवाई हुई। इस पर न्यायाधीश ने पूछा कि लोगों के घरों तो तोड़ना इतना जरुरी क्यों है? इस पर वन विभाग के वकील ने अपना पक्ष सामने रखा। बहरहाल न्यायालय ने पांच दिन की समय दिया है, लेकिन इसके पहले कईयों के सपनों का आशियाना टूट चुका था। पांच दिन का समय पूरा होने के बाद वन विभाग और कब्जाधारी दोनों का पक्ष न्यायालय के सामने रखा जाएगा, इसके बाद आगे का निर्णय होगा।
कब्जा हटाने के नाम पर महामाया पहाड़ को जहां कब्जामुक्त करने की पहल की गई है, वहां वन विभाग के द्वारा लगाए गए तार के फेंसिंग के अंदर अतिक्रमण हटाने की कवायद की गई है। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि जब वन विभाग ने स्वयं तार का घेरा लगाकर वन भूमि का सीमा पूर्व में तय कर चुका था, तो छोटे मकान बनाकर रहने वाले परिवारों को बेघर क्यों किया गया। मंगलवार को टेंट और प्लास्टिक की पन्नी लगाकर छोटे बच्चों के साथ बसर कर रहे परिवारों का परिदृश्य सामने आया, जो नहाने और दैनिक दिनचर्या के लिए इधर-उधर भटक रहे थे। यह इलाका कभी बच्चों की हंसी और चूल्हे से उठते धुआं के कारण जीवन की हलचल का प्रतीक था, यहां आज खामोशी छाई थी। बच्चे कबाड़ की तरह बाहर किए गए सामानों के बीच अपना बस्ता तक नहीं तलाश पाए, जिस कारण उनकी स्कूल से दूरी बनी रही। रात आग जलाकर कईयों ने गुजारा। वो तो भला हो इनकी सुध लेने वालों का जिन्होंने ठंड के मौसम को देखते हुए रात में ही इनके लिए टेंट की व्यवस्था कर दी थी, जिसमें ये अपना पलंग लगाकर रात बिताए। अस्त-व्यस्त सामानों को पहरा देते कई लोग पूरी रात की गई आग की व्यवस्था के बीच समय काटते रह गए। पार्षद बाबर इदरिशी के अलावा अन्य लोगों की निरंतर सक्रियता बनी रही, जिससे इन्हें भूखे पेट नहीं रहना पड़ा। सड़क किनारे खुले आसमान के नीचे रात गुजार रहे परिवारों का दर्द ऐसा है, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। ठंड से कांप रही एक महिला ने कहा जिस जमीन पर उसके बच्चों ने पहली बार चलना सीखा, आज उसी जमीन से दूरी बन गई। मासूम बच्चे अपनी मां से पूछ रहे थे, मां, हमारा घर कहां गया? हम कहां जाएंगे, यह सवाल न केवल उस मां के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चुनौती है, क्या हम इन बच्चों को उनका घर वापस मिल पाएगा। इस पूरे घटनाक्रम ने केवल घरों को नहीं तोड़ा, बल्कि उन सपनों को भी चकनाचूर कर दिया, जो इन परिवारों ने वर्षों से सजाए थे। सवाल उठता है कि इन परिवारों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं दिया जा सकता था? क्या उनका पुनर्वास सुनिश्चित करना जिम्मेदारी नहीं थी? ठंड के मौसम में खुले आसमान के नीचे तड़पते इन परिवारों की चीखें न केवल प्रशासन, बल्कि समाज से भी न्याय की गुहार लगा रही हंै। स्थानीय लोगों ने बेघर हुए लोगों की मदद के लिए आगे आए। ठंड से बचने आग के अलाव सहित खाने-पीने और सोने के लिए टेंट से बिस्तर की व्यवस्था कर दी। पहाड़ के नीचे खुले मैदान में बेघर लोगों के लिए टेंट से कनात मांगा, ताकि ठंडी हवाओं से इन्हें बचाया जा सके। मंगलवार को भी युवाओं की टीम इनकी मदद के लिए तत्पर नजर आई। इनके द्वारा बनवाए गए खाना से लोग भूख मिटाते नजर आए।