निर्मल तिग्गा

सेवानिवृत्त अपर कलेक्टर

28 मार्च 1926 को गाब्रिएल मुंशी और मोनिका के घर पहलौटे के रूप में यूजिन तिग्गा का जन्म हुआ और यही आगे चलकर मेरे पिताश्री हुए। दुनिया में कितनी शख्सियत आती हैं और गुमनामी के अंधेरे में विलीन हो जाती है। बहुत कम personality ऐसे होते हैं जो unsung hero बन पाते हैं। ऐसी विभूतियां कम होती हैं जिन्हें इतिहास याद रखता है। यूजिन तिग्गा को भी इसी सामान्य श्रेणी में ही गिना जा सकता है। किसी अपने निकटवर्ती जन खासकर पिता के संबंध में कुछ कहना या बताना कम खतरे का काम नहीं है। इसमें पक्षपात का बड़ा जोखिम है। जो भी हो मैंने आज यह दुःसाहस तो कर ही दिया है और इसके लिये कलम पर छोड़ दिया है, जो बताना चाहे बताये, जो लिखना चाहे लिखे। सब यश-अपयश उसके सर !

हाँ, तो मैं कह रहा था… उन दिनों गाब्रिएल गिनाबहार मिशन संस्था में मुंशी का काम करते थे अतः उनका परिवार वहीं बसता था। यूजिन की पढ़ाई- लिखाई प्राइमरी से सातवीं मिडिल तक गिनाबहार में हुई। उन्हें हिंदी और अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान प्राप्त हुआ। मिडिल पास करने के कुछ समय बाद, एक दिन ऑफिस से लौटकर गाब्रिएल ने पत्नी मोनिका को किशोर यूजिन के बारे में अपना निर्णय सुनाया। सुनकर मोनिका का कोमल मातृहृदय द्रवित हो गया। गाब्रिएल ने कड़े रुख से कहा कि देश-दुनिया देखेगा तो जीना सीख जायेगा। इसे सेना में भेजो।

उन दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया था। सेना की भर्ती चल रही थी। पिता की कठोर आज्ञा के सामने माँ-बेटे की एक न चली। किशोर यूजिन सेना भर्ती कैंप से चयनित होकर ब्रिटिश इंडियन फौज का हिस्सा बन गया। सन् 1939 में घर से विदा लेकर ट्रेनिंग के लिए यूजिन पटना पहुँचा। वहाँ की कड़ी ट्रेनिंग के बाद देवलाली छावनी, महाराष्ट्र गए और अपना प्रशिक्षण पूरा किया। एक दिन अपने रेजिमेंट के साथ, मद्रास से जहाज में सवार होकर मित्र सेना की ओर लड़ने के लिये पूर्वी मोर्चे जावा, सुमात्रा, रंगून – के लिये चल पड़े। सुमात्रा के जंगलों में मित्र सेना लॉर्ड माउंटबेटन की कप्तानी में लड़ रही थी।

यूजिन बताता है कि जापानी सेना चींटियों की तरह आगे बढ़ते आते थे। दोनों के बीच घमासान युद्ध चल रहा था। यूजिन को नहीं लगता था कि कभी घर लौट के जा सकेंगे भी या नहीं। एक बार कभी अवकाश में घर आना हुआ तो घर में उत्सव का माहौल था।

वह बताते थे कि युद्ध कितने खतरनाक ढंग से चलता है। बंकरों में कैसे जान बचती है। आगे बताते कि सिंगापुर स्वर्ग सा सुंदर मालूम पड़ता है।

गाँव में एक बड़ा त्योहार मनाया जानेवाला था, तभी सेना से तार आया • छुट्टी कैंसिल ! तुरंत मोर्चे पर जाना हुआ। यूजिन सामान सहित तैयार होकर चल पड़े। कुछ दूर तक माता-पिता और गाँव वाले छोड़ने गये। वह विदा होकर अपनी राह चलता बना। कभी फिर मुड़कर नहीं देखा। उनके बारे यह बात प्रचलित थी कि एक बार विदा होने के बाद कभी पलटकर नहीं देखते थे। उस दिन भी यही हुआ। माँ आँसू पोंछते घर वापस आयी ।

कुछ दिन बाद यूजिन की कुशलता का पत्र मिला। लड़ाई जारी थी। माउंटबेटन की अगुवाई में मित्र सेना मोर्चे पर डटी थी। दूसरी तरफ जर्मनी, इटली, जापान की जिद्दी सेना भी अड़ी थी। इसी बीच 7 और 9 अगस्त को अमेरिका ने जापान के नागासाकी और हिरोशिमा में ऐटम बम बरसा दिये। जापान ने घुटने टेक दिए, फलतः द्वितीय विश्व युद्ध का मित्र सेना की जीत के साथ पटाक्षेप हो गया। इसी विजय के साथ माउंटबेटन विश्व का हीरो बन गया तथा यही भारत को आजादी दिलाने के लिये भारत के अंतिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल बनने का आधार भी बना।

ब्रिटिश भारतीय फौज विजय पताका लहराते हुए देश लौट चुकी थी। फौजियों के पास विकल्प था- आजादी के बाद भारतीय सेना में रहें अथवा अवकाश ग्रहण कर लें। यूजिन ने दूसरा विकल्प चुना और घर की राह ली। फौजी यूनिफॉर्म का एक सेट बहुत दिनों तक घर में था जिसे हमें भी देखने का अवसर मिला।

सेना से लौटकर यूजिन कुछ दिन बाद राज्य पुलिस सेवा में चले गये, मगर पिता गाब्रिएल को पुलिस की नौकरी पसंद नहीं थी। लिहाजा उन्हें पुलिस की नौकरी छोडनी पड़ी। गाब्रिएल का परिवार अब गिनाबहार छोड़कर पैतृक गाँव कारीछापर आकर विरासतन खुद की खरीदी जमीन पर गुजर करने लगा। यूजिन पिता के काम में हाथ बँटाने लगे। इसी बीच जुलिया नामक सुशील कन्या से यूजिन का विवाह हुआ और यही मेरी माताश्री बनीं।

गाँव में कोई अन्य व्यक्ति पढ़ा-लिखा नहीं था। यूजिन को राजस्व विभाग की ओर से ग्राम पटेल नियुक्त कर दिया गया। तबसे वे यूजिन पटेल कहलाने लगे और हमारा परिवार पटेल परिवार के नाम से इलाके में जाना जाने लगा। सन् 1952 में गाब्रिएल का निधन हो गया और छह भाई-बहन, माँ, पत्नी, बच्चे आदि के भरे पूरे परिवार की जिम्मेदारी युवा यूजिन पटेल पर आ गयी। सभी भाई-बहनों को उनकी क्षमता अनुसार बी. ए., मैट्रिक, मिडिल तक की शिक्षा दिलाकर उन्हें व्यवस्थित किया।

ग्राम पटेल के रूप में यूजिन बहुत कर्मठ व्यक्तित्व वाले थे। अपना काम मुस्तैदी से करते और हर साल 100% लगान वसूल कर खजाना दाखिल करते थे। घर में अक्सर दर्खास्त लिखाने वाले, कचहरी के काम वाले, जमीन संबंधी काम वाले लोग आते-जाते रहते थे, जिनकी वे यथासंभव मदद किया करते। गाँव वालों के काम से अक्सर कचहरी जाया करते थे। तहसीलदार, एस. डी. ओ., कलेक्टर, एस. पी. के कार्य शैली और उनके अधिकार की चर्चा करते थे। इसी दर्मियान गाँव में एक छोटा चर्च बन गया। जिसके लिये एक धर्म प्रचारक की आवश्यकता हुई और यूजिन को धर्म प्रचारक नियुक्त कर दिया गया। जीवन में ये दो जिम्मेदारी ही शायद यूजिन का प्रारब्ध था। अतः इन्हीं दोहरी जिम्मेवारी को लेकर आगे बढ़ते गये।

सार्वजनिक जीवन में उनकी वेशभूषा धोती और कमीज हुआ करती थी। सवारी में बी. एस. ए. (made in england) की साईकिल थी। बाद में उम्र अधिक हो जाने पर एक घोड़ा रख लिया था। गाँव वाले उनका धार्मिक प्रवचन बड़े चाव से सुनते थे। उनके प्रवचन सरल, रोचक, सारगर्भित और प्रभावपूर्ण हुआ करते थे। कई धर्म उपदेशकों की तुलना में यूजिन प्रचारक के उपदेश मर्मस्पर्शी होते थे, या यूँ कहें मैं उनके इस ज्ञान और विधा का कायल था। वे अपने उपदेश में कहते थे ‘मनुष्य कमजोर माटी का पुतला है। ईश्वर के बताये मार्ग में चलते हुए अपनी कमजोरी के कारण बार-बार गिर जाता है, लेकिन हम मनुष्य को गिरते-पड़ते संभलते ईश्वर की ओर निगाह रखकर विश्वास का मजबूत सहारा लेकर आगे बढ़ते जाना है। ईश्वर अंततः हमें थाम कर हमारा उद्धार करेगा यह निश्चित है।’

यूजिन के घर चार जोड़ी बैल की खेती थी। बीस एकड़ से कुछ ही अधिक। नौकरों के साथ एक जोड़ी बैल को खुद हाँकते थे। खेती का काम उन्हें आता था। खेत में नौकरों के साथ खुद भी काम करते थे। छुट्टियों में हमें भी खेत ले जाते थे। एक बार गाँव में उन्हें हॉकी खेलते देखा था। धनुर्विद्या में निपुण थे। तीज-त्योहारों में ग्रामीण लोकगीत गाने में उनकी रुचि थी। सामूहिक नृत्य में शामिल हो जाते थे मगर उनमें नृत्यकला का नितांत अभाव था।

दिन में काम से फुर्सत पाकर दिल्ली का ‘संजीवन’ साप्ताहिक पत्र और राँची की मासिक पत्रिका ‘निष्कलंका’ जरूर पढ़ते थे। हमें भी पढ़ने को कहते, मगर हमलोगों में तब कोई रुझान नहीं बन पाया। दुलदुला काथलिक महासभा के सचिव की हैसियत से सभा की कार्यवाही का विवरण घरेलु काम से निजात पाकर रात को लालटेन की धुंधली रोशनी में तैयार करते और माँ को सुनाते थे। अर्धनिद्रा में ऊंघते हुए हमलोग भी सुनते थे। रिपोर्ट लच्छेदार और रोचक मालूम पड़ती थी। उनकी लगभग बीस-पचीस गायें और भैंसें होती थीं। दुधारू गाय-भैंसों को खुद भी दुह लेते थे। वर्ष 1961 की जनगणना में उन्हें संभवतया प्रगणक कार्य के लिये भारत सरकार की ओर से एक ‘प्लेटनुमा’ कोई पुरुस्कार मिला था, जिसे माँ ने बहुत दिनों तक सहेजकर रखा था। कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है। मुझे कवर्धा के सेवाकाल में रहते वर्ष 2011 के जिला जनगणना अधिकारी के रूप में अच्छे कार्य के लिये राट्रपति की ओर से राज्यपाल के हाथों रजत पदक और सम्मान पत्र प्राप्त हुआ।

जीवन के चौथे पहर में उन्होंने अपने गाँव का इतिहास साथ ही साथ अपने परिवार का भी इतिहास लिखने की शुरुआत की। इस आशा से कि भावी पीढ़ी उसे आगे बढ़ाये। दोहरी-तिहरी जिम्मेवारियों के साथ अपनी एक पुत्री को प्राइमरी की प्रधान पाठिका, एक पुत्र को हाईस्कूल का अंग्रेजी लेक्चरार, एक पुत्र को क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी और मंझले बेटे को अपर कलेक्टर के पद तक उन्होंने पहुँचाया। अगर हममें शिष्टाचार या सफलता की थोड़ी भी महक मिलती हो तो यह सब उनके पसीने की ही खुश्बू मानी जाएगी। आम जनों के लिए वे आमजन ही थे। मगर एक पिता के रूप में वे हमारे लिये शब्दों से परे हैं।

यूजिन पटेल समस्त दायित्वों का निर्वाह करते हुए गंभीर अस्वस्थता के कारण होलीक्रॉस हॉस्पिटल कुनकुरी में 11 फरवरी 2001 को 74 वर्ष की आयु पूरी कर महाप्रस्थान कर गये। उनकी मृत्यु के एक सप्ताह बाद भारत सरकार से एक डाक आया जिसमें यूजिन के जीवित होने का प्रमाण पत्र चाहा गया था

जिससे भूतपूर्व सैनिक के नाते कोई पेंशन राशि दिये जाने की मंशा थी। लेकिन तब तक यूजिन बहुत दूर जा चुके थे, जहाँ से लौटना संभव नहीं है।

परमात्मा उन्हें अनंत शांति प्रदान करें। बहुत संभल-संभल कर चलते हुए भी पितृमोह में पड़कर लेख में कुछ ऊँच-नीच हो गयी हो अथवा थोड़ी लंबी हो गयी हो, तो पाठकगण उदारतापूर्वक क्षमा करते हुए एक पुत्र की भावनाओं को बर्दाश्त कर आगे बढ़ जायें, बड़ी कृतज्ञता होगी।

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