बिहार में दलित, आदिवासी और पिछड़ों के लिए 65 परसेंट आरक्षण को बचाने की कानूनी लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और विपक्ष को एक पाले में डाल दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को पटना हाईकोर्ट द्वारा बिहार आरक्षण कानून को रद्द करने के खिलाफ दायर लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की अपील को नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार की अपील के साथ संबद्ध (टैग) कर दिया और संबंधित पक्षों को नोटिस जारी कर दिया है। अगली सुनवाई दशहरे की छुट्टी के बाद हो सकती है।

जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर नवंबर 2023 में नीतीश की महागठबंधन सरकार ने एससी, एसटी, ओबीसी और ईबीसी का आरक्षण बढ़ाकर 65 परसेंट किया था। पटना हाईकोर्ट ने 20 जून 2024 को संविधान के तीन अनुच्छेदों का उल्लंघन बताकर बिहार के नए आरक्षण कानून को रद्द कर दिया था। इस फैसले को राज्य सरकार जुलाई में ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे चुकी है। 29 जुलाई को राज्य सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर किसी तरह की रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

संविधान के तीन अनुच्छेदों का उल्लंघन; कैसे नीतीश का बिहार आरक्षण कानून हाईकोर्ट में फेल हुआ?
बिहार में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सीएम दफ्तर में मंगलवार को नीतीश से औपचारिक बैठक के बाद विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने मीडिया के सवाल पर कहा था कि उनकी सीएम से नौवीं अनुसूची में बिहार आरक्षण कानून डालने पर चर्चा हुई। पत्रकारों ने जब पूछा कि नीतीश ने क्या जवाब दिया तो तेजस्वी ने बताया कि सीएम कहा कि मामला कोर्ट में है। तेजस्वी ने बताया था कि उन्होंने सीएम से कहा कि आरजेडी भी कोर्ट पहुंच गई है, वहां दोनों अच्छे से बात रखते हैं।

पटना हाईकोर्ट से बिहार आरक्षण कानून रद्द, नीतीश ने EBC, OBC, SC, ST कोटा 65 फीसदी कर दिया था
राज्य सरकार ने नवंबर 2023 में नए आरक्षण कानून को पास कराया था जिसके बाद सामान्य वर्ग के लोगों के लिए सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में दाखिले में मात्र 35 फीसदी जगह ही रह गई थी। 10 फीसदी ईडब्ल्यूएस जोड़ देने पर वो घटकर 25 परसेंट पर चली गई थी। राज्य सरकार ने नए कानून में एससी, एसटी, ओबीसी और ईबीसी का आरक्षण क्रमशः 16 से 20, 1 से 2, 12 से 18 और 18 से 25 फीसदी कर दिया था।

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